भागवत कथा के प्रथम दिन भक्ति और मानव के उद्धार प्रसंग का हुआ वर्णन।
दरभंगा: श्रीमद् भागवत कथा के प्रथम दिवस बहादुरपुर प्रखंड क्षेत्र के उघड़ा गांव में श्री भरत भारद्वाज महाराज जी के द्वारा प्रभु की भक्ति और मानव के उद्धार प्रसंग का उल्लेख किया।
व्यास जी ने कहा एक समय की बात है, नैमिषारण्य तीर्थ में शौनकादिक 88 हजार ऋषियों ने पुराणवेत्ता सूतजी से पूछा- हे सूतजी, इस कलियुग में वेद-विद्यारहित मनुष्यों को प्रभु भक्ति किस प्रकार मिलेगी तथा उनका उद्धार कैसे होगा।
हे मुनिश्रेष्ठ, कोई ऐसा व्रत अथवा तप कहिए जिसके करने से थोड़े ही समय में पुण्य प्राप्त हो तथा मनवांछित फल भी मिले। हमारी प्रबल इच्छा है कि हम ऐसी कथा सुनें। सर्वशास्त्रज्ञाता श्री सूतजी ने कहा हे वैष्णवों में पूज्य! आप सबने प्राणियों के हित की बात पूछी है। अब मैं उस श्रेष्ठ व्रत को आपसे कहूंगा, जिसे नारदजी के पूछने पर लक्ष्मीनारायण भगवान ने उन्हें बताया था। कथा इस प्रकार है। आप सब सुनें। एक समय देवर्षि नारदजी दूसरों के हित की इच्छा से सभी लोकों में घूमते हुए मृत्युलोक में आ पहुंचे। यहां अनेक योनियों में जन्मे प्राय: सभी मनुष्यों को अपने कर्मों के अनुसार कई दुखों से पीड़ित देखकर उन्होंने विचार किया कि किस यत्न के करने से प्राणियों के दुखों का नाश होगा। ऐसा मन में विचार कर देवर्षि नारद विष्णुलोक गए। वहां श्वेतवर्ण और चार भुजाओं वाले देवों के ईश नारायण को, जिनके हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म थे तथा वरमाला पहने हुए थे, देखकर स्तुति करने लगे। नारदजी ने कहा- हे भगवन! आप अत्यंत शक्ति से संपन्न हैं, मन तथा वाणी भी आपको नहीं पा सकती, आपका आदि-मध्य-अंत भी नहीं हैं। आप निर्गुण स्वरूप सृष्टि के कारण भक्तों के दुखों को नष्ट करने वाले हो। आपको मेरा नमस्कार है। नारदजीसे इस प्रकार की स्तुति सुनकर विष्णु बोले- हे मुनिश्रेष्ठ! आपके मन में क्या है। आपका किस काम के लिए यहां आगमन हुआ है? नि:संकोच कहें। तब नारदमुनि ने कहा- मृत्युलोक में सब मनुष्य, जो अनेक योनियों में पैदा हुए हैं, अपने-अपने कर्मों द्वारा अनेक प्रकार के दुखों से पीड़ित हैं। हे नाथ! यदि आप मुझ पर दया रखते हैं तो बताइए उन मनुष्यों के सब दुख थोड़े से ही प्रयत्न से कैसे दूर हो सकते हैं।
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